Category: अपर्णा भटनागर
-
प्रेम-3 / अपर्णा भटनागर
प्रेम-3 / अपर्णा भटनागर कितना रहस्यमय है प्रेम जतिंगा की उन हरी पहाड़ियों सा जो खींचती हैं असंख्य चिड़ियों को अपने कोहरे की सघन छाह में चन्द्र विहीन रात पसर जाती है पंखों पर और क़त्ल हो जाती हैं कई उड़ाने एक साथ घाटी निस्पृह भीगती रहती है पूरे अगस्त -सितम्बर तक रहस्यमयी हवाएं बदल […]
-
मुक्तिबोध / अपर्णा भटनागर
मुक्तिबोध / अपर्णा भटनागर कल मैं पढ़ रही थी नेरुदा और ज़ख़्मी हो गई थीं मेरी आँखें आँसू के साथ घुल गया था लाल रंग और रात घिर गई थी इस कदर मेरे इर्द-गिर्द कि छलनी आकाश चमक रहा था चमकीले घावों से .. सिमटे -सिमटे से तारे न जाने कितने उभर आये थे उसके […]
-
राम से पूछना होगा / अपर्णा भटनागर
राम से पूछना होगा / अपर्णा भटनागर वह दीप चाक पर चढ़ा था बरसों से .. किसी के खुरदरे स्पर्श से स्पंदित मिट्टी जी रही थी धुरी पर घूर्णन करते हुए सूरज को समेटे अपनी कोख में .. वह रौंदता रहा घड़ी-घड़ियों तक … विगलित हुई देह पसीने से और फिर न जाने कितने […]
-
आस्था / अपर्णा भटनागर
आस्था / अपर्णा भटनागर आस्था के अंधे दरवाजों में पिस गई थी मेरी देह, खून से लथपथ मेरी आत्मा पर गहरी-गहरी चोटों के निशान थे त्रिशंकु की तरह मेरा विवेक निर्णय के उस आकाश में लटका था जहाँ मैंने हत्याओं को निर्दोष साबित किया आस्था को आदमखोर भीड़ हो जाने दिया उसके नुकीले पंजे किसी […]
-
गौतम की प्रतीक्षा ? / अपर्णा भटनागर
गौतम की प्रतीक्षा ? / अपर्णा भटनागर कुछ तितलियाँ फूलों की तलहटी में तैरती कपड़े की गुथी गुड़ियाँ कपास की धुनी बर्फ़ उड़ते बिनौले और पीछे भागता बचपन मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ मेमनों के गले में झूलते हाथ नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह सूखे […]
-
कवि / अपर्णा भटनागर
कवि / अपर्णा भटनागर जब धूप जंग करती अपने हौसले दिखाती है तो अक्सर छाँव का एक टुकड़ा उसे मुस्कुरा कर देता हूँ और हथियार छोड़ जाती है धूप इस कदर मेरे आँगन में कि सूरज सहम कर देखता है- आकाश में कर्फ्यू लगा है बिना पथराव के? चाँद से बहस – उसका संविधान लिखने […]
-
छुटकारा / अपर्णा भटनागर
छुटकारा / अपर्णा भटनागर दोस्त छुटकारा कहीं नहीं है हम जो कभी एक दूसरे से दूर भागते हैं इसका अर्थ यह नहीं कि कोई ओर नहीं, छोर नहीं हमारा और हम कहीं भी भाग छूटेंगे पृथ्वी की परिधियों से आज तक कोई नाविक नहीं गिरा किसी शून्य में सब चलते रहे चलने की चाह में […]
-
नाविक मेरे / अपर्णा भटनागर
नाविक मेरे / अपर्णा भटनागर ये आज है कल थक कर बिखर गया है जैसे थक जाती है रात और कई आकाशगंगाएं ओढ़ कर सो जाती है एक तकिया चाँद का सिरहाने रख सपनों पर रखती है सिर.. और सुबह की रूई गरमाकर बिनौलों संग उड़ जाती है दूर दिशाओं के देश में तब अपने […]
-
लौटना / अपर्णा भटनागर
लौटना / अपर्णा भटनागर उस दिन मैंने देखा कतारें सलेटी कबूतरों की उड़ती जा रही थीं उनके पंख पूरे खुले थे जितनी खुली थीं हवाएं आसमान की उनके श्यामल शरीर पर काले गुदने गुदे थे आदिम आकृतियाँ न जाने किस अरण्य से विस्थापित देहें थीं उनकी सलेटी चोंच चपटे मोतियों से मढ़ी थीं जिन पर […]
-
प्रेम-2/ अपर्णा भटनागर
प्रेम-2/ अपर्णा भटनागर इतना आसान नहीं प्रेम हंसों का जोड़ा बतियाता है और सामने लगा पेड़ रंगने लगता है पत्तों पर तस्वीर नल-दमयंती की रेत में दुबका पीवणा डस लेता है मारू को भंवर में झूल रहे होते हैं सोनी- महिवाल किसी हाट में सच की बोलियों पर बिक रही होती है तारामति हरिश्चंद्र का […]