घुल सी गई रूह में उदासी / अब्दुल अहद ‘साज़’

घुल सी गई रूह में उदासी / अब्दुल अहद ‘साज़’
घुल सी गई रूह में उदासी
रास आई न हम को ख़ुद-शनासी

हर मोड़ पे बे-कशिश खड़ी है
इक ख़ुश-बदनी ओ कम-लिबासी

लालच में परों के पैर छूटे
अब रख़्त-ए-सफ़र है बे-असासी

नफ़्स-ए-मज़मूँ इसी में है गो
मज़मून-ए-नफ़स है इक़तिबासी

आई भी तो क्या निगार-ए-ताबीर
ओढ़े हुए ख़्वाब की रिदा सी

जादू सा अलम का कर गई ‘साज़’
उन आँखों की मुल्तफ़ित उदासी

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