दहकते शोले / अहिल्या मिश्र

दहकते शोले / अहिल्या मिश्र
न तो शृंगार पर लिखा, न अभिसार पर लिखा है
न तो स्वीकार पर लिखा, न शब्दों के भ्रम जाल पर लिखा है
न तो इंकार पर लिखा, न हीं विरह व्यापार पर लिखा है
मैंने तो दहकते शोलों के आगार पर लिखा है।
मैंने तो केवल जलती अंगार पर लिखा है।

दहकती हैं जहाँ केवल अभाव में सांसें
बहकती हैं जहाँ जीवन के भाव में सांसें
बिकती हैं जहाँ दूध के लिए माँ की आसें
उतरती हैं जहाँ रिश्तों के लिए ज़िन्दगी की लाशें।
मिटाती हैं जहाँ निष्क्लांत निशा एहसासें
छुपाती हैं जहाँ पैसे व्यभिचार की पाशें

मैंने तो दुनिया के बाज़ार पर लिखा है
मैंने केवल जलती अंगार पर लिखा है।

दहेज नरभक्षी जहाँ सम्बंधों का करता भक्षण
दुहिता होते ही जहाँ मात्र गृह में होता शोक नमन
बालपन पग बढ़ाते ही जहाँ सहेजती करुण क्रंदन
दुख-दर्द संजोतीं जहाँ निश्चल कुसुमित यौवन
वर पक्ष की इच्छा ही जहाँ मातृ पक्ष का चिंतन
भूखा राक्षस करता है जहाँ आत्महत्या का शिंचन

मैंने तो केवल चिता के अभिसार पर लिखा है
मैंने तो केवल जलती अंगार पर लिखा है।

जन्में बच्चों में जहाँ ढेरों अरमा पलते हैं
माँ के मन में जहाँ अगणित आस संभलते हैं।
शिक्षा के विकटता से जहाँ अधरवाय लड़ते हैं
डिग्री हाथ लिए जहाँ द्वार-द्वार भटकते हैं
नौकरी बनती ‘स्वर्ग परी’ सिर टकराते फिरते हैं
खाली नहीं जगह देख-सुन थके हारे पलटते हैं।

मैंने तो केवल संत्रासितों के आभास पर लिखा है
मैंने तो केवल जलती अंगार पर लिखा है।

सड़क की लंबी छाती सब कुछ समा लेती है
चोर, लुटेरे, डाकू, फ़क़ीर, सबको जगह देती है
जीवन चक्र पाप के गर्द में जहाँ डुबो देती है।
नहीं भय काल-चक्र का अर्थ संचय ही नियति है
आँखों वाले अंधे जहाँ हाथ फैलाया करते हैं
उच्श्रृंखला धनकुबेर जहाँ मनमौजीपन करते हैं।

मैंने तो केवल पाप के भागीदार पर लिखा है
मैंने तो केवल जलती अंगार पर लिखा है।

शिखंडी जहाँ लड़ते रहते नंगी सत्ता वेश्या से
होता चीर-हरण हर क्षण जहाँ परस्पर ईर्ष्या से
शकुनि जहाँ बिछाता चौपड़ पांडवों के दृश्या से
सच्चाई पाती अज्ञातवास जहाँ कौरव की इच्छा से
कुर्सी का हत्था थामते जहाँ महाभारत की मंशा से
डरते नहीं जहाँ कभी भी अभिमन्यु की व्यूह स्पर्धा से

मैंने तो राजनीति धर्म के परिहार पर लिखा है
मैंने तो केवल जलती अंगार पर लिखा है।

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