दिल भी बुझा हो, शाम की परछाईयाँ भी हों / फ़राज़

दिल भी बुझा हो, शाम की परछाईयाँ भी हों / फ़राज़
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों

हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों

दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है “फ़राज़”
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों

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