हमदर्द मेरे हर मौके पर, वादों को निभाना भूल गए / अशोक रावत
हमदर्द मेरे हर मौके पर, वादों को निभाना भूल गए,
दुनिया के फ़साने याद रहे, मेरा ही फ़साना भूल गए.
हर एक शहादत भूल गए सुखदेव, भगत सिंह बिस्मिल की,
हम साठ बरस के भीतर ही, गांधी का ज़माना भूल गए.
क्या याद नहीं आता है किसी को जलियाँवाला बाग कभी,
हर टीस पुरानी भूल गए, हर जख्म पुराना भूल गए.
कुछ बेच रहे हैं ज़ात पात, कुछ मंदिर मस्जिद गुरद्वारे,
सब अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास जताना भूल गए.
ये बीफ मटन की चिनगारी, ये आरक्षण के दांव पेच,
लगता है जैसे बादल भी अब आग बुझाना भूल गए.
क्या सोच था लोगों का लेकिन ये माली बाग बगीचों के,
खारों की हिमायत करते रहे, फूलों को बचाना भूल गए.
ईमान के पथ पे चल कर ही हर मंज़िल हासिल होती है,
हर पाठ पढ़ाया गुरुओं ने, यह पाठ पढ़ाना भूल गए.
जो कसम उठा कर आए थे, हर घर को रौशन कर देंगे,
ये पैरोकार उजालों के क्यों दीप जलाना भूल गए।
कुछ लोग तरसते हैं अब भी रोटी के निवलों के खातिर,
महलों की सियासत में लीडर मुफलिस का ठिकाना भूल गए.
किस मोड पे आके दुनिया की तहज़ीब न जाने ठहर गई,
बस खून बहाना सीख लिया , हम अश्क बहाना भूल गए.
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