ख़त की सूरत में मिला था जो वो पहला काग़ज / अशोक ‘मिज़ाज’

ख़त की सूरत में मिला था जो वो पहला काग़ज / अशोक ‘मिज़ाज’
ख़त की सूरत में मिला था जो वो पहला काग़ज़
रात भर जाग के सीने से लगाया काग़ज़

एक आहट सी हुई चौंक के देखा मैंने
एक पत्थर में था लिपटा हुआ ख़त सा काग़ज़

कोई इस दिल पे मुहब्बत की ग़ज़ल लिक्खेगा
काम आयेगा किसी रोज़ ये कोरा काग़ज़

आपका नाम किसी और के संग लाया था
लाल स्याही में छपा ऐक सुनहरा काग़ज़

ग़म का इज़हार कुछ इस तरहा किया था उसने
इक लिफ़ाफे में मिला था मुझे भीगा काग़ज़

अब ख़ुशी है न कोई ग़म न तमन्ना है मिज़ाज
ज़िंदगी आज भी है जैसे कि कोरा काग़ज़

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