अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर / अशहर हाशमी

अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर / अशहर हाशमी
अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर
नाम उस के इक अलामत में लिखा दीवार पर

राएगाँ जाती हुई उम्र-ए-रवाँ की इक झलक
ताज़ियाना है क़नाअत-आश्ना किरदार पर

दुश्मनों के दरमियाँ मेरा मुहाफ़िज़ है क़लम
मैं ने हर तल्वार रोकी है इसी तल्वार पर

दिन हो जैसा भी गुज़र जाता है अपने तौर से
रात होती है मगर भारी तिरे बीमार पर

सुस्त-गामी ले के मंज़िल तक चली आई मुझे
तेज़-रौ अहबाब हैराँ हैं मिरी रफ़्तार पर

शब के सन्नाटे ही में करता है सच्ची गुफ़्तुगू
शहर अपना दुख सुनाता है दर ओ दीवार पर

ज़िंदगी करना वो मुश्किल फ़न है ‘अशहर’ हाशमी
जैसे कि चलना पड़े बिजली के नंगे तार पर

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *