जहाँ में आज कल सभी बहम, नाराज़ रहते है / अर्पित शर्मा ‘अर्पित’

जहाँ में आज कल सभी बहम, नाराज़ रहते है / अर्पित शर्मा ‘अर्पित’
जहाँ में आज कल सभी बहम, नाराज़ रहते है
हमारी जान हम तुमसे तो कम, नाराज़ रहते है

ज़रा सी बात पे कहती हो क्यूँ तुम हमसे इठला के
करो न बात अब हम से के हम, नाराज़ रहते है

फ़क़ीरों से कोई पानी ही ले आओ, चमत्कारी,
जो मेरे जान-ओ-दिल है वो सनम, नाराज़ रहते है

दुआ हक़ में हमारे पीरो मुर्शिद रोज़ फरमाओ
मुक़ामें फ़िक्र है दोनों ही हम, नाराज़ रहते हैं

ग़नीमत है यही, इनसे था अपनी जान का ख़तरा
चलो अच्छा है जो अहले सितम नाराज़ रहते है

तुमारा साथ हो तो मंज़िलो थकता नहीं हूँ मैं
तुम्हारे बिन नहीं उठते क़दम, नाराज़ रहते है

क़दम रखे है जब से तुमने मेरे दिल के आँगन में
ख़ुशी अठखेलियाँ करती है, ग़म नाराज़ रहते है

है हम तो बे ख़बर इसका सबब क्या है ख़ुदा जाने
न जाने हमसे क्यूँ अहले करम, नाराज़ रहते हैं

मुझे देखा है जब से मुस्कुराकर आपने “अर्पित”
उसी दिन से सभी ज़ुल्म-ओ- सितम, नाराज़ रहते है

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