भदेस प्रेम / अर्चना लार्क

भदेस प्रेम / अर्चना लार्क
नहीं चाहती मुझे प्रेम हो
हंस पड़ती थी
अपने ही बनाए चुटकुले पर
और लगातार हंसती जाती थी
उन सहेलियों पर
जिन्होंने कर लिया था प्रेम

एक पान मुँह में चबाए
गिलौरी बगल में दबाए
होठों के कोरों से रिसते लार को बार-बार समेटते
वे अपनी फूहड़ आवाज़ और अन्दाज़ में
न जाने क्या क्या समझाते रहते हैं

त्रिवेणी सँगम के पास
प्रेमिकाएँ बनी – ठनी
आतुर निगाहों से
अपलक अनझिप
प्रेमी को निहारती रहती हैं

कोई कैसे पड़ सकता है प्रेम में
न लड़ाई, न बहस
न अपेक्षा, न उपेक्षा
देर तक होती थी इनके बीच घर – गांव की बातें

कितनी बार रोते देखा है
इन प्रेमी जोड़ों को
हर जोड़े के यहाँ मिठ्ठू पनिहार और काकी मिल ही जाती थीं सम्वाद के लिए

क्या
मेरे लिए भी है
कहीं मेरा प्रेम !

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