कहाँ हो तुम ? / अरुण श्री
अजब दिन है –
न आँसू हैं न मुस्काने, न अपनी ही खबर कोई।
बचा है सिर्फ पत्थर भर तुम्हारा देवता अब तो।
कहाँ हो तुम?
तुम्हारे हाथ पर रखना तुम्हारा ही दिया तोहफा,
तुम्हारे आँसुओं को लाँघकर आगे निकल जाना,
कहाँ आसान था कहना –
कि अब मिलना नही मुमकिन।
तुम्हारा काँपती आवाज में देना दुआ मुझको कि –
“खुश रहना जहाँ रहना”, करकता है कहीं भीतर।
तुम्हें हक था कि मेरा हाथ माथे से लगा लेते,
मुझे हक हो न हो, लेकिन तुम्हारी याद आती है।
कहाँ हो तुम?
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