पर्यायवाची / अरुण देव

पर्यायवाची / अरुण देव
गुलमोहर आज लाल होकर दहक रहा है
उसके पत्तों में तुम्हारी निर्वस्त्र-देह की आग
मेरे अंदर जल उठी है

उसके कुछ मुरझाए फूल नीचे गिरे हैं
उनमें सुवास है तुम्हारी
मुझे प्रतीक्षा की जलती दोपहर में सुलगाती हुई

यह गुलमोहर आज मेरे मन में खिला है
आओ की आज हम दोनों एक साथ दहक उठें
कि भीग उठें एक साथ, कि एक साथ उठें और
फिर गिर जाएँ साथ साथ

मेरी हथेली पर तुम्हारे नाम से निकल कर एक अक्षर आ बैठा है
और तबसे वह ज़िद्द में है कि पूरा करूँ तुम्हारा नाम

शेष तो तुम्हारे होठों से झरेंगे
जब आवाज़ दोगी अपने होठों से मुझे मेरी पीठ पर

उन्हें ढूँढ़ता हूँ तुम्हारे मुलायम पहाड़ों के आस-पास
वहाँ मेरे होठों के उदग्र निशान तुम्हें मिलेंगे
तुम्हारे नाभि-कुण्ड से उनकी तेज़ गंध आ रही है

मैं कहाँ ढूँढूँ उन्हें जब कि मैं ही अब
मैं नहीं रहा

तुम्हारे नाम के बीच एक-एक एक करके रखूँ अपने नाम का एक-एक अक्षर

कि जब आवाज़ दे कोई तुम्हें
मेरा नाम तुम्हे जगा दे कि उठो कोई पुकार रहा है
अगर कहीं गिरो तो गिरने से पहले बन जाए टेक
और अगर कहीं घिरो तो पाओ उसे एक मजबूत लाठी की तरह अपने पास
कि अपने अकलेपन में उन्हें सुन सको
कि जब उड़ो ऊँचे आकाश में वह काट दे डोर तेज़ काटने वालो की

वैसे दोनों मिलकर पर्यायवाची हो जाएँ तो भी
चलेगा
अर्थ के बराबर सामर्थ्य व वाले दो शब्द
एक साथ

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