पीछा करना / अम्बर रंजना पाण्डेय

पीछा करना / अम्बर रंजना पाण्डेय
बीतने दो कुछ वर्ष फिर उसके पीछे-पीछे भटकने
की बात याद कर तुम लजाओगे या हँसोगे ख़ूब ।
कैसे उसके पीछे मुड़ने पर सिनेमा के अभिनेताओं
की तरह तुम जूते के फ़ीते बाँधने लगते ।
पीछे
सौन्दर्य के नष्ट हो जाने में कितना सौन्दर्य है यह तुम
मन ही मन जानते हो पर किसी से कहोगे नहीं ।

तल्ला कई बार बदला है; उन्हीं जूतों में चल सको पर
फ़ीते धागा-धागा हो गए ।
धूप में तेज़ चलना अब
सम्भव नहीं । पीछे पलट वह देखे अचानक फ़्लमिंगो
की तरह तो तुम मुड़
नहीं पाते उतनी जल्दी न
नाटक कर पाते हो उसे न देखने का । पुतलियाँ फँस
रह जाती हैं सुन्दरता पर, डुलती नहीं,
अकड़ूँ
हो गई हैं । सौन्दर्य उसका
वैसा ही रहा जैसे कवियों के
मन में चन्द्र की उपमा
रह गई, अब भी नवीन,

अब भी कौंधनेवाली मन में । अन्धा करनेवाली उसकी
सुन्दरता, आँखें चौंधिया जाती और कुछ दिखाई न
देता । फ़्लमिंगो जैसे कभी भी उसका पीछे देखने लगना
वैसा का वैसा रहा और नहीं बदली चौराहों पर
बने फ़व्वारों का गन्दा पानी पीने की उसकी आदत, वैसी
ही रही प्यास, वैसी ही है ओक से पानी पीने की रीति ।

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