ऋषभ ब्रह्मो का विक्षिप्तावस्था में मिलना / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय
उत्तर कलकत्ते में चोखरागिनी सिनेमाघर था
सात वर्ष पूर्व, उसी के सम्मुख दिखाई पड़े ऋषभ ब्रह्मो
पाँयचला पथ पर पड़े थे अर्धनग्न
दीर्घ दाढ़ी, दाढ़ें मैली, दृष्टि धूमिल
बंकिम कनीनिका से देखने लगे अनिमेष
फिर, कूदे और मेरे भगवे में हाथ डाल झँझोड़ डाला
मेरा कण्ठ और मेरा ह्रदय
उस वानर की भाँति जो झँझोड़ देता है आम्रतरु
फल की कामना में
ऋषभ ब्रह्मो अब किसी के वश के न थे
कोजागर सेठ की धर्मशाला से अर्धरात्रि के पश्चात
ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व मैं पहुँची उनके निकट
एक कागोज में बासी लूचियाँ और चोरचोरी लेकर
‘कितने निर्बल हो गए हो ऋषभ ब्रह्मो,
मार्ग पर विवस्त्र पड़े रहते हो, यह क्या हो गया है तुम्हें घरबार छोड़ दिया नौकरी चली गई
जबा काज़िम भी लौट गई ढाका’
नहलाना चाहती थी उन्हें निर्वस्त्र करके
उनके अँगों पर, अस्थियों पर, मन पर
जो संसार की धूल जम गई थी, धो देना चाहती थी
अपनी कविताओं से, अपने स्वेद और रक्त से
किन्तु उठे वह और छीन लिया मेरे हाथ से
लूचियों और चोरचोरी का पूड़ा, पाषाण दे मारा मेरे
माथे पर और भाग गए पूर्व की ओर
भागते काल उनकी दृष्टि किसी पशु की भाँति
भयभीत और करुण टिकी रही मुझपर देर तक
पलट-पलट के देखते, भागते जाते थे ऋषभ ब्रह्मो
पूर्व की ओर जहाँ बालारून प्रकट होने को था
रक्तचम्पा के फूल की भाँति
हम सब मानुष आलोक के पीछे ही भागते है
चाहे ह्रदय के स्थान पर हो हमारी पसलियों में
ह्रदय बराबर तिमिर का टुकड़ा ।
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