भुला दूँ कैसे मैं उसकी क़यामत खेज़ नज़रों को / अबू आरिफ़

भुला दूँ कैसे मैं उसकी क़यामत खेज़ नज़रों को / अबू आरिफ़
भुला दूँ कैसे मैं उसकी क़यामत खेज़ नज़रों को
कि जिन से जीस्त के उजडे चमन में फिर बहार आई

लिखूँ तफसीर कैसे उसके मैं हर हर तबस्सुम की
कि मैं भी मयकदे से देखने दीवाना वार आई

चमन में जब गुलों ने ज़िक्र छेड़ा उनकी आमद का
कदमं बोसी को आई है सबा मस्तानापार आई

बड़ी बेकैफ गुजरी है जुदाई की स्याह रातें
नसीम सुभ जो आई तो खबर खुशगवार आई

तकल्लुफ जान लेवा है यही आरिफ को बतला दो
चलो अब मयकदे क आई शाम-ए-इन्तज़ार आई

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