प्रेम-4 / अपर्णा भटनागर
कितना विचित्र है प्रेम
जिसमें रुकना होता है समय को
रचने के लिए नया युग
समय सुनता है छैनियों की नरम देह की आवाजें
जिनमें तराशने के संस्कार पीट रहे होते हैं हथौड़ियाँ …अनगढ़ पत्थरों पर
वल्लरियों के गुल्म चढ़ने लगते हैं मंदिर की पीली लाटों पर
और बुद्ध की आँखें अचरज से देख रही होती हैं अपने चारों ओर लिपटे वलय को
सुजाता ले आती है खीर
प्रेम बोधि हो जाता है.
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