अधूरापन / अपर्णा अनेकवर्णा

अधूरापन / अपर्णा अनेकवर्णा
अब मेरे पास जो आई हो तो क्या आई हो.. — मजाज़

अपना सिर तुम्हारे पीठ से टिकाए
जब रूह सुकूनो से भर रही होती हूँ …
तुम हँसना नहीं तब..
न ही मुझे खींचना आगे..

अब जान गई हूँ..
वहाँ मेरी लिए कोई जगह नहीं..
ढेरों किस्से हैं वहाँ.. पुरानी यादें..
कुछ ज़ख़्म.. धीरे-धीरे सूखते हुए

दिल सीने में है मगर
पीठ को भी है धड़काता हुआ
वो नर्म-नर्म सी धड़कनें
पहुँच ही जाती है मुझ तक.. मुझमें..

हाथ पीछे ले जा कर अपना
थाम लेते हो मेरा हाथ..
खींच कर धर लेते हो
जब अपने सीने पे..

सर को पीछे झुका कर तनिक-सा
मेरे सर पे टेक देते हो तुम..
एक कायनात मुकम्मल हो उठती है
बाँट लेते हैं हम सातों जन्म..

यह अधूरा-सा आगोश ही..
मुझे पूरा किए देता है..
रूंधें से तुम.. ये भी तो कह देते हो..
‘अब मेरे पास जो आई हो तो क्या आई हो..’

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