यूँ उमड़ने को तो हर रोज़ ही उमड़ा बादल / अनु जसरोटिया

यूँ उमड़ने को तो हर रोज़ ही उमड़ा बादल / अनु जसरोटिया
यूँ उमड़ने को तो हर रोज़ ही उमड़ा बादल
मेरी आशाओं की खेती पे न बरसा बादल।

एक छींटे को तरसती रहीं फ़स्लें मेरी
मेरे खेतों के मुक़द्दर में नहीं था बादल।

ऐसी तासीर भी होती है कभी पानी में
आग सी दिल में लगाता है सुहाना बादल।

जाने किस देस की धरती को करेगा जल थल
एक अन्जाने सफ़र पर है रवाना बादल।

आस बँध जाती ज़रा सूखते तालाबों की
झूठा वा’दा ही जो कर जाता गुज़रता बादल।

जाने किस देस बरसने के लिए जाता है
मेरे घर में भी किसी रोज़ बरसता बादल।

वो किसी और ही बस्ती में बरस जाता है
भूल जाता है मिरे गाँव का रस्ता बादल।

हर पहाड़ी से लिपट जाता है बादल ऐसे
जैसे हर एक पहाड़ी ने हो पहना बादल।
कुछ ख़याल उस को न था प्यास के मारों का ‘अनु’
आज रह रह के समंदर पे जो बरसा बादल।

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