राग-विराग / अनुलता राज नायर
मेरे आँगन में
पसरा एक वृक्ष
वृक्ष तुम्हारे प्रेम का
आलिंगन सा करतीं शाखें
नेह बरसाते
देह सहलाते
संदली गंध से महकाते पुष्प
कानों में घुलता सरसराते पत्तों का संगीत,
जड़ें इतनी गहरी
मानों पाताल तक जा पहुंची हों
सम्हाल रखा हो घर को अपने कांधों पर.
मगर ये तब की बात थी…
अब आँगन में बिखरे हैं सूखे पत्ते
जिनकी चरमराहट ही एकमात्र संवाद है मेरा वृक्ष से
तने खोखले हैं
खुरदुरा स्पर्श…
जड़ों ने दीवारों में दरार कर दी है
ऐसा नहीं कि प्रेम के अभाव में जीवन नहीं
मगर
बड़ा त्रासद है
प्रेम का होना और फिर न होना…
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