पागलों के लिए कोई जगह नहीं / अनुपमा तिवाड़ी

पागलों के लिए कोई जगह नहीं / अनुपमा तिवाड़ी
पागलों का कोई,
घर नहीं होता
पागलों का कोई,
गाँव नहीं होता
पागलों का कोई,
देश नहीं होता
कोई हक़ नहीं जमाता पागलों पर
फिर भी पागल अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाते हैं
किसी न किसी गाँव में / शहर में / देश में.
पागल गाँव में होते हैं तो बच्चे,
उन्हें पत्थर मारने का मज़ा लेते हैं
घरों / दुकानों के सामने से वे दुत्कार दिए जाते हैं
पर, शहर बड़े सभ्य होते हैं
यहाँ के न पुरुष, न महिलाएँ और न बच्चे उन्हें तंग करते हैं
यहाँ कोई पत्थर नहीं मारता उन्हें
कोई देखता तक नहीं उन्हें
वो मुट्ठी भर – भर गालियां फेंकें,
दिन भर बड़ – बड़ करते फिरें,
तब भी कोई नहीं देखता उन्हें
सब, आंखें चुराते हुए जल्दी से गुज़र जाना पसंद करते हैं,
इनके पास से
कौन मुँह लगे इनके ?
शहरों में पागल पुरुष तो किसी भी काम के नहीं होते
अलबत्ता औरतें, दिन में कितनी ही बदसूरत या पगली कहलाएँ
पर, रात के अंधेरों में वहशी आँखों द्वारा मौका पाते ही खींच ली जाती हैं
और फिर भरी जून में कम्बल में लिपटी,
बड़े – बड़े, ऊबड़ – खाबड़ सख्त जूते पहने
लूले हाथ की गूँगी पगली औरत,
दिखती है मुझे, पूरे नौ महीने से.

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *