मुख़ालफ़त की ताक़त का गुरूर अब कितना है / अनिल पुष्कर

मुख़ालफ़त की ताक़त का गुरूर अब कितना है / अनिल पुष्कर
शब्द अब कुछ टटोलते-टटोलते रुक जाते हैं
आँखें ठहरी होती है कि
वो फिर से दिखेगी यहीं, अभी, इधर ही
बस, बस बिलकुल ठीक इसी जगह

कुछ षड्यन्त्र आते हैं दौड़कर
जिन्हें हम धर्मनिरपेक्ष, न्यायविद, समतामूलक,
कहते आए हैं
वे ख़ुद को सेक्युलर कहना कभी नहीं भूले
बन्दी जिसे रोग़न-जोश कहता है
उन्हीं ‘संवैधानिक उपचारों’ में
आतंक का हथियार दमक रहा है
कई-कई तारीख़ों में पहले भी रात गए

वो क़ातिल अँधेरे में महारत-सा दहका था
लोग सहमे थे, घबराए थे और जबानें सदमे से चुप थीं

बूटों ने ‘जम्हूरियत’ की कतार पर तान दी थीं बन्दूकें
जिसे सल्तनत मन-मुआफ़िक इधर-उधर, किधर भी ?
जिधर चाहे उधर करती है दहशतगर्द में तब्दील

ऐसे में, वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत बताया गया
बूटों को — बन्दूकों के साथ
 
जब ज़मीन की छाती पर कब्ज़े की चोटें हों
जब ख़ून के धारे एक आवाज़ में फूटे हों
जब हम मजहबी दंगे के बीच जिए
जब कौमी फ़तवों में हमारे सारे जमानतदार मारे गए
जब एक धमाके से देश की लोकप्रिय पेशानी टूट गई
जिसे कुछ ‘नामचीन’ शब्द कहते हैं शुरू से आख़िर तक,
एक क़िस्सागोई, उसके ज़िन्दादिली की
और जिल्द लगी तमाम क़िताबों में
वो इतिहास की दराज़ों में टाँके गए

तब किसी ने
भूख से रिरियाते नाजुक होठों में
दूध की बोतल नहीं थमाई

तब किसी ने
कटे हुए हाथों को रत्ती भर दया नहीं दिखाई

तब किसी ने
झूठी तसल्ली के दो शब्द नहीं कहे
जो शबे-वहशत में अस्पताल के बरामदे में मरी
कि प्रधानमन्त्री के बनने से उसकी कोख क्यों उजड़ी ?

उस लोकतान्त्रिक जमूरे से जिसे रहनुमा
कहता है लोकतन्त्र
किसी ने पूछा ?
कि उस रात रोटी का स्वाद कैसा था ?
जब घरों में आग के गोले दहक रहे थे
जब-जब तारीख़ों के मयख़ाने में धू-धूकर दिल जलते हों

उस रात, उस रात,
उस रात लाखों घरों में चूल्हे पर तवा चढ़ा था ?
नई हथेलियों में गुंदी हुई सपनों की मीठी लोई
सफ़ेद चादर ओढ़े शान्ति-पाठ में शामिल थी

उस रोज़
न्याय की कोठियों में जश्न का मंज़र छाया था
राष्ट्रीयता जैसे पेट-मरानी, नफ़ीस, तालुकेदार
नक़्क़ाश, महफ़िलों की रौनक थी
हम वहीं खड़े थे, तुम वहीं खड़े थे
हिक़मत का पैरोकार और राष्ट्र
पेशगी में अब तक वहीं खड़ा है

जब हमारे हाथों में मन्दी और
आर्थिक तंगी का गुनहगार हमें ठहराया
हम पर ज़िम्मेदारी थी कि
इसे कुसूर मानें याकि अपना फ़र्ज़ ?

क्या ऐसे में
यह चिन्ता वाजिब है ?
इस्पात, बिजली और कोयले के कारख़ानों में
ज़मीन लूट की हम ताकीद करें
कितनी और बस्तियाँ उजड़ेंगी हुक़ूमती फरमानों पर
अध्यादेश में चुप्पी के, कितने मुँहबन्द लिफ़ाफ़े रखने होंगे
कितनी भूखी नंगी नस्लों को बिन माँगे — नई
योजनाओं की भट्ठी में खैराती कुफ्र की नश्तर देनी होगी

दोनों शातिर — (हुक्मरान, रसूखदार)
पैगम्बर, औ’ कायनात की वर्षगाँठ मनाने निकले हैं
याकि माँसखोर के भेष में मातमपुर्सी पर निकले हैं

संसद ज्यूँ पैतरेबाज़, निरंकुश, ताक़तवर
इस काफ़िराना सोच का मजमा — कैसा है ?
ये धरने, जुलूस, हड़तालें,
ये नारे-हंगामे, शोर-शराबा
सब कुछ बेमानी लगता है

दो दुनियाओं में जीते-जीते
हमारी मुखालफ़त की ताक़त का गुरूर अब कितना है
जो कभी ख़ुदगर्ज़, कभी-कभी बेहद संजीदा दिखता है

ऐसे में — पेशवाज़-विधायिका और
हमशक़्ल नुमाइन्दों की तबियत कुछ उकताई
कभी-कभी कुछ साफ़-साफ़-सी दिखती है.
देखो !! फाजिल की ख्वाहिश में
दो मसखरे बैठे हैं दोनों फातिर बैठे हैं ।

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