उत्तराखण्ड की आपदा पर / अनिल कार्की
अनमने मन से एक कविता पंजाबी कवि ‘पाश’ को याद करते हुए
1.
वे इसी तरह बहते हैं
रेत होने को नहीं
बल्कि मिट्टी होने को
हर चौमास[1] में
इसी तरह गलते हैं जेठ में
उनकी लाशें मीलों लम्बा सफ़र तय करते हुए
साथ ढो लाती हैं
चिकनी, दोमट और काली मिट्टियों के अकूत भण्डार
मैदानों की तरफ़
2.
उनकी मृत्यु जीवन की शुरुआत है
वे जीवन की निशानदेही पर
बसा लेते हैं फिर से कोई गाँव उत्तरपूर्व की तरफ़
और एक दिन
वक़्त की नदी बदल देती है अपनी धार
तब उनकी बकरियाँ बह जाती हैं
जिनका नाम आदमियों-सा होता है
उनका घर धरधरा कर गिर पड़ता है
बिखर जाते हैं पाथर[2]
उनकी लाशों पर
उनकी आँखों पर उग आती है बिच्छूघास
लेकिन वो उठ खड़े होते हैं बार-बार
पहाड़ की बराबरी को
और तान लेते हैं अपना तम्बू
सबसे बड़े पहाड़ की चोटी पर!
बना लेते हैं नए खेत
पुराने खेतों के नाम वाले
3.
उनकी जवान बेटियाँ बह जाती हैं
कण्ट्रोल[3] की दूकान से
आपदा का राशन लाते हुए
उनका भगवान उखड़ जाता है
धरती में रोपे गये बिजाड़[4]-सा
वे अपने भगवान को
बच्चे की तरह दुधमुँहा समझते हुए
पाले जाते हैं
यह जानते हुए की धार की चढ़ाई
खुद ही करनी होती है पार
फिर भी किसी छायादार वृक्ष के नीचे
वे रोप देते हैं निशान
और उगा देते हैं चोटी में देवदार के साथ एक गूँगा भगवान
4.
उन्होंने मामूली चीज़ों की तरह
एक भगवान भी उगाया
जैसे कभी-कभी वे उगा देते हैं
रिंगाल की डलिया में हरेला[5]
या फिर धार[6] पर पीपल
वे अजीब होते हैं
कच्चे आम की गन्ध में गन्धाते उनके शरीर
नमक की महक लिए होते हैं
वे झगड़ते हैं देवताओं से
चीरते हैं नदियों के सीने
भिड़ते हैं पहाड़ों से
कहते हैं शेर को बणबिल्ली
आश्चर्य!
फिर भी वे दुष्यन्त के पुत्र भरत नहीं होते
जिसके नाम पर रखा जा सके किसी देश का नाम
5.
जब घिरता है चैमास
छीज जाता है मण्डुवा[7] का आटा
मसाले बिसोटे[8] पे पनियाने लगते हैं
सिलाप से भर जाता है
गेहूँ का भकार[9]
इसी तरह पसरता है झड़[10]
चूने[11] लगती है पाख[12]
सड़ने लगती है मोल[13] की लकड़ी
धीरे-धीरे टपकता रहता है आसमान
पाख के सूराख़ से
पीतल की परात[14] पर
बजता रहता है पानी
आँखों का कानों पर
निकलता रहता है धुआँ
अलौटे[15] लकड़ी से आसमान की तरफ
धरती वालों के प्यार की तरह
6.
इस तरह
बना लेते हैं
वे पहाड़ पर पगडण्डी
और चढ़ जाते हैं
दरकते पहाड़ों के सीने में
अपनी बकरियों और देवताओं समेत
नयी फ़सलें बोने !
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