बाबरी मस्जिद-2 / अनिल अनलहातु

बाबरी मस्जिद-2 / अनिल अनलहातु
“हज़र कुन ज़दूदे दरुंहाय-रेश
कि रेशे दरूँ आक़बत सर कुनद!
बहम बर मकुन ता तवाने दिले
कि आहे ज़हाने बहम बर कुनद।”

(भीतरी घाव के धुएँ से बच
आक़बत नज्रे-आह होती है,
एक भी दिल न तोड़, आह न ले
एक दुनिया तबाह होती है)

— “बाबरनामा”, लेखक–ज़हीर-उद्दीन मुहम्मद बाबर

कि लोग मेरी कविताओं की पंक्तियों को पढेंगे
और एकदम से सन्न रह जाएँगे,
वे चौंक उठेंगे
और सहमे हुए से
अपने-अपने दड़बों में ढुक जाएँगे।

कि बाप जब पढ़ेगा
बेटे की
बेरोजगार दु: स्वप्नों से दागदार
ज़िन्दगी की किताब,
उसकी झुकी हुई कमर
और झुक जाएगी।

कि मेरी कविताएँ
जो अपने समय की नंगी साक्षी होंगी,
जला दी जाएँगी,
चूल्हों में झोंक दी जाएँगी।

कि लोग जब गुजरेंगे
मेरी कविताओं से होकर
वे भूल जाएँगे
अपने घर का रास्ता
कि ज़िन्दगी पहाड़ पर टंगी लालटेन नहीं है
जो इस घात लगाए समय को
ललकार सके
 
जहां अँधेरे में ही जीना
ज़्यादा सुविधाज़नक हो गया है,
जहां प्रकाश आँखों में
गड़ता है,
और एक कुत्ते-से
आदमी की बनिस्बत
ज़्यादा तमीज़ की
उम्मीद की जा सकती है।

कि पिछले पांच हज़ार सालों से
सिन्धु घाटी सभ्यता के
ग्रामीण किसान, मजदूर
इतिहास में अपनी
जगह मांग रहें हैं।

ऐसे में मेरी कविता
जब बातें करती है
मोएन-जो-दड़ो (1) में मिले
मुहरों (Seals) पर खुदे अक्षरों से
और काँप-काँप उठती है
एक समूचे विध्वंस (Holocaust) से।

कि एक सभ्यता के भग्नावशेष
पर खड़ी हुई
दूसरी सभ्यता
कब तक सुरक्षित रह पाएगी?

कि इतिहास (कौन-सा?)
एक सड़ा हुआ मुर्दा है
जिसकी जगह
शहरों और हरी-भरी आबादी से दूर
वीरान कब्रिस्तानों में है
इसे वहीं दफ्न रहने दो।

कि इस भारतवर्ष के लिए
एक ही “मोएन-जो-दड़ो” (1) काफी है।

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