एक गुमनाम चिट्ठी / अनिल अनलहातु

एक गुमनाम चिट्ठी / अनिल अनलहातु
एक गुमनाम चिट्ठी बहुत दिनों से भूले एक मित्र के नाम

प्रिय भाई सात्यायन
आज अचानक ही वह भड़ुआ दिखा
पूरे दस सालों के बाद
(आई एस एम के कैम्पस में)
जो हमें
मार्क्सिस्ट इकोनोमी के
बरक्स कैपीटलिस्ट इकोनोमी को
बेहतर बताता
आहिस्ता–आहिस्ता
न जाने क्यों
पर अवश्य ही
मार्क्स के पक्ष में चला जाता।

कभी नहीं लिए
जिसके नोट्स हमने,
और जिसके ऐनक के ठीक नीचे
वाल्टर मोंडेल की पुस्तक से
जिंदगी की नकल की।

क्या वाकई उसके ऐनक
का नंबर इतना ज़्यादा था?
या नामालूम किस दुख में
मुब्तिला वह
जिंदगी को देखने से करता रहा
इंकार।

पूरे एक दशक बाद
आज वह
अधेड़ और बूढ़े के बीच का
कामरेड दिखा,
ठीक पोस्ट ऑफिस के सामने
उन्हीं थके कदमों,
बढ़ी हुई बेतरतीब दाढ़ी
और झुर्रीदार वजूद को घसीटते।

जिससे पहले पहल हमने
ठीक एक दशक पहले
पढ़ी थी
जिंदगी की किताब
 “मदर” और “हिस्टोरिकल मैटीरियलिज़्म” ,
वह हँसा …और “लेट मी डाइ नेचुरल डेथ”
मार्क्स के पन्नों से
उसकी ज़िन्दगी तक पसर गया।

दिखता है मुझे
इस शहर का ‘तीसरा आदमी’
एक माफिया लेखक,
जिसकी बेलौस हंसी
हमेशा की तरह मुझे
आदमी के आदमियत के प्रति
सदा आश्वस्त
करती रही है,

और
जो मुझे आदमियों के जंगल में
न आने की सलाह देता हुआ
खुद न जाने किस जंगल में
गुम गया था।

अब मैं मिलना चाहता हूँ
इस शहर के एकमात्र कवि से
जिसके चेहरे की मुर्दनी और बासी उबासी
खासा कुख्यात रही है,
चर्चे में जिसके ‘विग’ और ‘थर्टी प्लस’ भी
प्राय: छाए रहते।

और अब मैं खड़ा हूँ
इस शहर के मुख्य चौराहे पर
गांधी की मूर्ति के ठीक सामने
दीवार की ओट लेकर
मूत रहा हूँ और
अपने पेशाब के पीले पड़ते जाने पर
बिल्कुल भी चिन्तित नहीं हूँ
एम्मानुएल ओर्तीज़ (1) की तरह।

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