टोपी शुक्ला को पढ़कर / अतुल कुमार मित्तल

टोपी शुक्ला को पढ़कर / अतुल कुमार मित्तल
एक दु:खांत नाटक के
नायक की भाँति
अन्त कर लूँ क्या स्वयं का
और भला कर भी क्या
सकता हूँ
रंगों में दौड़ते इस
गर्म-गर्म लहू का
उड़ेल दूँ क्या इसे
किसी अस्पताल के
बैड के सिरहाने लटकी
उल्टी बोतल में?
या फेंक दूँ चुल्लू में भर-भर कर
रंगा के चाकू पर बिल्ला के पंजों पर
या बाँट दूँ हिस्से-हिस्से इसे
रंग बिरंगे झंडों और बिल्लों को
रंगूं इससे कोरे कागज
या फैला दूँ इसे खाली केनवास पर

सच दोस्त!
मुझसे सही नहीं जाती इसकी
तेज रफ़्तार
मियादी बुखार की तरह
इसका कारवाँ
दिल से दिमाग तक
चढ़ता उतरता है
दिन में कई-कई बार
ज्वार की तोड़ फोड़
भाटे की थकन
झेलता है हर बार
एक मेरा मन

क्या कहते हो दोस्त
मेरी किस्मत ही
किस्मत है मेरे देश की!
सच कहते हो बिल्कुल सच
यह देखो मेरी चिरी
फटी हथेली
कुंठाओं के पर्वतों से निकलकर
अभावों की रेखा पहुँचती तो है किसी मुकाम पर
लेकिन इस अज्ञात स्थल का
नाम तक नहीं जानता

सच ही तो है दोस्त
किस्मत का अर्थ ही है परवशता, गुलामी
और इस गुलामी से मुक्ति के लिए
लहू का समुद्र छब्बीस बरस से
मेरे जिस्म की दीवार पर
टक्करें मार रहा है!

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *