चक्रान्त शिला – 14 / अज्ञेय

चक्रान्त शिला – 14 / अज्ञेय
वह धीरे-धीरे आया
सधे पैरों से चला गया।
किसी ने उस को छुआ नहीं।
उस असंग को अटकाने को
कोई कर न उठा।

उस की आँखें रहीं देखती सब कुछ
सब कुछ को वात्सल्य भाव से सहलाती, असीसती,
पर ऐसे, कि अयाना है सब कुछ, शिशुवत् अबोध।
अटकी नहीं दीठ वह, जैसे तृण-तरु को छूती प्रभात की धूप

दीठ भी आगे चली गयी।
आगे, दूर, पार, आगे को,
जहाँ और भी एक असंग सधा बैठा है,
जिस की दीठ देखती सब कुछ,
सब कुछ को सहलाती, दुलराती, असीसती,

-उस को भी, शिशुवत् अबोध को मानो-
किन्तु अटकती नहीं, चली जाती है आगे।
आगे?

हाँ, आगे, पर उस से आगे सब आयाम
घूम-घूम जाते हैं चक्राकार, उसी तक लौट
समाहित हो जाते हैं।

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *