क्या क्या नवाह-ए-चश्म की / ‘अज़हर’ इनायती

क्या क्या नवाह-ए-चश्म की / ‘अज़हर’ इनायती
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
मौसम गया गुलाब गए तितलियाँ गईं.

झूटी सियाहियों से हैं शजरे लिखे हुए
अब के हसब नसब की भी सच्चाइयाँ गईं.

किस ज़ेहन से ये सारे महाज़ों पे जंग थी
क्या फ़तह हो गया के सफ़-आराइयाँ गईं.

करने को रौशनी के तआक़ुब का तजरबा
कुछ दूर मेरे साथ भी परछाइयाँ गईं.

आगे तो बे-चराग़ घरों का है सिलसिला
मेरे यहाँ से जाने कहाँ आँधियाँ गईं.

‘अज़हर’ मेरी ग़ज़ल के सबब अब के शहर में
कितनी नई पुरानी शानासाइयाँ गईं.

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *