बेत‍आल्लुक़ी / अख़्तर-उल-ईमान

बेत‍आल्लुक़ी / अख़्तर-उल-ईमान
शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ[1]
जो कभी मेरे सर पे संग-गराँ[2] बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला[3] बन कर
जो कभी उक्दा[4] बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़श्गाँ[5] पर आया
आज बेवास्ता[6] यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं

उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

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